आज फिर पानी बरसा,
सूखी माटी पी गयी हर बूँद
और इसी जमीन पर मैं खड़ी
ढूँढती अपनी हँसी ,
तितलियों सी उडती थी
आज तेरे हाथों में मसली गयी
तारों सी झिलमिल करती थी
आज अंधेरों में दबी है कहीं।
मैं नहीं, ना मेरा वजूद ,
तू सही, तू ही हर जगह मौजूद ,
मेरी बात नहीं, तेरा साथ नहीं,
ये घर अब घर न रहा ,
ईंट - रेत का मकान ही सही।
सपने नहीं,उम्मीदें दम तोड़ चुकी,
ज़िन्दगी नहीं, ज़िन्दगी नयी ?
इस सवाल से घिरी आज मैं खड़ी
आज फिर पानी बरसा,
सूखी माती पी गयी हर बूँद,
आंसूं से खुद को सीनचती
तेरी परछाई में खुद को रही ढून्ढ।
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I love this. Thank you <3
ReplyDeleteanytime :)
Deleteglad u liked it ..